मंगळवार, १२ जानेवारी, २०१६

॥ चलने का नाम ज़िन्दगी ॥

     


             ॥     चलने का नाम ज़िन्दगी  ॥ 
खाई थी हमने कसमे ,वादे कई किये थे ,अनजान रास्तेपर सपने बड़े बड़े थे ,
ना धूप की थी फ़िक्र ,ना अंधेर से डरे थे ,बस हाथोंमें हाथ लेकर हमतो निकलपड़े थे ,
वो साथथे हमारे ,पर दिलसे जुड़े नहीं थे ,जजबातों के ख़जाने तहखाने में पड़े थे ,
इत्तेफ़ाक़ था अबतक रास्ते  मुड़े नहीं थे ,फिर इत्तेफ़ाक़ ने साथ छोड़ा रास्ते अलग हुए थे ,
ख्वाबोंके टूटने पर झटके कई लगे थे ,अब रास्तेमें हम अकेलेही खड़े थे ,
रास्ता उन्होंने छोड़ा ,होश हमारे क्यूँ उड़ेथे,सबकुछ तो लुटादिया था,फिर सवाल क्यों पड़ेथे ?
आती है जान अकेली ,जातीभी अकेली ,पर बीचके सफ़र में रिश्ते कई बने थे ,
सोचा चलना ही जिंदगी है ,और हम फिरसे चल पड़े ,
चलना शुरू किया तो ,तिनके के सहारे भी जहाज़ से लगे थे ,
पीछेना मुड़कर देखा ,हालाँकि बीच -बीच में ,पहाड़ोंसे पड़ाव भी पड़े थे ,
चलना तो था हमीको ,पर देने सफर में सहारा ,सैंकड़ों हाथ बढे थे ,
ख़ुदा को किसने देखा ?पर खुदाई के आगे ,हम जिस्मोजानसे झुके थे ,खुदाई के आगे ---




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